तुम मेरी पीड़ा कब समझोगे ?
मेरी पवित्रता का मोल कब जानोगे ?
कभी बाहर निकलती हूँ जो घर से,
तुम्हारी गिद्ध जैसी नज़रों से आहत होती हूँ।
क्या में आहार हूँ तुम्हारा ?
ये बात सोच - सोच कर रोती हूँ।
क्यों मैं खुल के जी नहीं सकती ?
जो चाहूँ वो कर नहीं सकती,
तुम मुझे ये दंश कब तक दोगे ?
तुम मेरी पीड़ा कब समझोगे ?
क्या मैं तुम्हारे लिये मात्र मनोरंजन की वस्तु हूँ ?
या मैं तुम्हारी संतुष्टि मात्र का साधन हूँ।
क्या तुम्हारी अतृप्त प्यास को बुझाना इतना ज़रूरी है,
कि तुम किसी भी लाचार पर एसा भयंकर क़हर बरसाओगे ?
खुद की हवस की भूख मिटाकर,
क्या मेरा पाक चरित्र फिर से वापस ला पाओगे ?
धिक्कार है तुम्हारे इंसान होने पर,
तुम्हारे पुरूष होने का अभिमान होने पर,
पुरूष तो नारी का संरक्षक है,
न की उसका भक्षक है,
इस कृत्य के लिये तुम कब नर्क भोगोगे ?
तुम मेरी पीड़ा कब समझोगे ?
पुरूष और नारी एक दूसरे के पूरक है,
दोनों एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं,
कोई भी कार्य तभी शुभ फलदायक है,
जब दोनों की सहमति हो।
वो कार्य पाप से कम नहीं जिसमें
किसी की भी असहमति हो।
नारी का तो सर्वश्रेष्ठ स्थान है,
क्योंकि नारी ही तेरी उत्पत्ति का आधार है।
तुम्हारा पौरूष है युद्ध के स्थान में वीरता दिखाना,
न कि एक अबला नारी से बलपूर्वक अपनी इच्छा मनवाना,
अपने पौरूषत्व की माला तुम कब तक जपोगे ?
तुम मेरी पीड़ा कब समझोगे ?
स्वरचित
स्वाति नेगी