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Tuesday, 28 June 2016

कशमकश

वक्त की चादर पर ऐसी सलवटे पड़ रही है,
कि नज़दीकियां दूरियों में बदल रही है।

हमने कोशिश की जितना समेटने की
उतनी ही जिंदगी ज्यादा बिखर रही है।

कुछ ऐसा रिश्ता जुड़ गया है आँखों का होंठो से
कि होंठो की हँसी आँखों की नमी में बदल रही है।

कैसे मोड़ पर लाके खड़ा किया तकदीर ने
जो पास है वो साथ नहीं, जो साथ है वो पास नहीं,
लोगों की तलाशने में ही सहर गुजर रही है।

अपनों ने ही ज़माने भर के इल्ज़ाम लगा दिए,
विश्वास के वादे एक पल में भुला दिए,
मैं कहाँ गलत हो गयी बस इसी कशमकश में दिन रात गुजर रही है।

जिसे माना हमने जहान में सबसे ज्यादा
उसकी आवाज़ में भी बेरुखी के तार छिड़ गए,
जो सुनके दिल सहम गया वही अल्फ़ाज़ रुक गए,
अब वो सारी प्यार भरी यादें मेरे आँसुओ में सिमट रही है।

                                       स्वरचित
                                      स्वाति नेगी

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