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Friday, 30 September 2016

वक्त की हेरा फेरी

आज फिर मैं तन्हा महसूस कर रही थी।
जहाँ से चली थी मैं आज फिर वही थी।
थी आरजू जो गुमनामी के अंधेरों में खो रही थी।
वो मेरी चाहतों के बाजुओं में दम तोड़ रही थी।
एक टीस बनकर रह गयी तेरी यादें,
कुछ अच्छी, कुछ बुरी में सभी निचोड़ रही थी।
था जाम भरा अच्छी यादों से मेरा,
एक बुरी याद जब ज़हर बनकर उसमें मिली थी।
जो चेहरे पर मेरे हँसी की सलवटें थी,
वो उदासी में करवटे बदल रही थी।

किसी ने पुकारा था मुझे अपनी बाह खोले,
वादा किया था भर देगा ख़ुशी से झोले,
हाँ वादा निभाया उसने काफी हद तक,
दिया साथ मेरा उसने आधे सफर तक,
मेरी मुस्कराहट पतझड़ के जैसे झड़ रही थी।
वो कल से अब तक के बीच लड़ रही थी।

लगा मैंने एक खूबसूरत ख़्वाब देखा,
जो टूट गया जो मैंने आँख खोली,
सोचा रो लू पर आँख से आँसू न निकला,
क्योंकि मुझे भी पता था ख़्वाब था हसीन पर उम्र थी थोड़ी,
मुझे लगा मेरे हाथ में गुलाब का सुर्ख लाल रंग है,
पता चला वो तो काँटों से मेरी हथेली रंग रही थी।
मैं जिसको रंग समझी वो खून से मुझे सन रही थी।

ये एहसास भी जरुरी था, ये अंजाम भी जरुरी था,
क्योंकि मैं अपने मुकद्दर से लड़ रही थी।
भूल गयी थी कठपुतली हूँ मैं भी मुकद्दर की,
मैं अपनी ख्वाहिशों से ज्यादा ऊँची उड़ रही थी।

                                  स्वरचित
                                 स्वाति नेगी

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