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Monday, 12 May 2025

In the end, everything will be forgotten....

A new movie, a trending web series, IPL resuming—distractions will flood in. BJP's IT cell will reclaim social media, RSS will spin the narrative into Modi's "victory" and push the Hindutva agenda. Aspirants will stress over exams again, job-seekers will return to their hustle, and these grave incidents will fade into static GK for future UPSC papers.

Everything will be buried.
Blame will quietly shift—yet again—onto the Muslim community, and internal tensions will rise as always. BJP will resume its chants of “Akhand Bharat” and “Hindus are in danger.”

But the harsh truth?
India is the one actually in danger.

We're isolated. Alone.
No global ally is standing by us in this polarized world. All those who once hailed India’s “world-class diplomacy post-2014” must now face the lie. Because when it mattered the most—we stood alone.

Believe what you want. But the diplomatic failure is real, and it’s ours.

Swati Negi

Wednesday, 17 January 2024

चीखती खामोशी

हम खामोश हैं पर फिर भी चीख है,
सूरज की तपती धूप में अंधेरों की पीड़ है।।

राहें साफ दिख रहीं हैं दूर से,
पास से कंकड़ों की सेज है,
हां बेहतर लग रही थी सारी फिजायें,
पर उन हवाओं में उजड़ी सी धूल है,
हर सुनहरी चीज़ नहीं है सोना,
उस चमक में दरारों को टीस है।

हम खामोश हैं पर फिर भी चीख है,
सूरज की तपती धूप में अंधेरों की पीड़ है।।

जीवन के सीधे सादे सफर में,
ऊबड़ खाबड़ रास्तों की खान है,
सुनसान सड़कों में न जाने क्यों,
नफ़रत का चीखों का शोर है,
काबिल हैं हम लड़ने में शायद,
तभी तुमने लगाई जंगों की भीड़ है,

हम खामोश हैं पर फिर भी चीख है,
सूरज की तपती धूप में अंधेरों की पीड़ है।।

Thursday, 11 January 2024

कुछ कुछ 💕

बहुत सारे किस्से हैं, 
बहुत सारे फसाने हैं, 
कुछ तुमसे सुनने हैं, 
कुछ तुमको सुनाने हैं, 
कुछ कागज़ों पर लिखने हैं, 
कुछ तुमको समझाने हैं, 
कुछ यादों के बादल हैं, 
जो फिर से बरसाने हैं, 
कुछ धूल हटाकर, 
फिर से मंच सजाने हैं, 
कुछ लफ्जों से बयान होगी बातें, 
कुछ आंखों से इशारे समझाने हैं, 
कुछ कुछ तो नहीं बहुत कुछ है, 
उस कुछ के अनसुलझे किस्से सुलझाने हैं।।

स्वरचित 
स्वाति नेगी

कभी कभी बस.....

कभी कभी बस नींद नहीं आती बातें काटती रहती हैं, 
रातें बांटती रहती हैं, उस दर्दभरी लम्हातों की टीस नहीं जाती, 
कभी कभी बस नींद नहीं आती।।

रातें खामोश थी पर आज शोर मचाती हैं, 
ख्वाबों की चादर फिर तेजी से उड़ जाती है, 
सवालों से पूरा दिमाग भर जाती है, 
सवालों का जवाब पूंछू तो जवाबदेही की हामी नहीं आती, 
कभी कभी बस नींद नहीं आती।।

मुकद्दर की हंसी सुनाई देती है, 
अंधेरों में सच्चाई दिखाई देती है, 
आस अभी जिंदा है या नही, 
यही उलझन और उलझती दिखाई देती है, 
सुलझाना चाहती हूं उसे पर वो हाथ नहीं आती, 
कभी कभी बस नींद नहीं आती।।

बाहर से शांत पर अंदर मन चीख रहा है, 
हर एक मुखौटे के पीछे सच छिप रहा है 
मैं हार नही मान रही तो चिढ़ रहा है 
झूठ का दलदल मुझे खींच रहा है 
एक उम्मीद अभी बाकी है जो कभी नहीं गिराती, 
कभी कभी बस नींद नहीं आती।।

इस सन्नाटों की आवाजें आती हैं, 
दिल की धड़कने बढ़ती है रूह घबराती है, 
दिमाग समझाती हूं शांत रहो नींद अभी आती है, 
चेहरे पर एक जबरदस्ती की मुस्कान लाई जाती है, 
खुद को ही लोरी सुनाकर आंखे बन्द नहीं हो जाती 
कभी कभी बस नींद नहीं आती।।

स्वरचित
स्वाति नेगी

खतरे में लोकतंत्र

वो लोकतंत्र का गला घोंट रहा है। 
हाँ लोकतंत्र अब अंतिम सांसे लेर रहा है।। 
हो रही है हर रोज़ संविधान् की हत्या, 
हर रोज मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है। 
वो लोकतंत्र का गला घोंट रहा है।।

असत्य का परचम लहराने वाले खुशहाली में खेल रहा है,
सत्य के पथ पर चलने वाला अत्याचारों के वार झेल रहा है। 
गुनहगारों पर है हल्का कानून का हाथ, 
और बेगुनाहों नाहों पर कानून को डंडा बोल रहा है। 
वो लोकतंत्र का गला घोंट रहा है।।

अदालतों में सच्चे मुकदमों में तारीख़ पर तारीख़, 
झूठे मुकदमों पर जल्दी फैसला हो रहा है। 
प्रमाणों के साथ नहीं हो रही है FIR दर्ज, 
और एक झूठे ट्वीट से मुकदमा दर्ज हो। 
वो लोकतंत्र का गला घोंट रहा है।। 

बेगुनाह और सत्यवादी जा रहे हैं जेल के अंदर, 
गुनहगारों और असत्यवादियों का स्वागत हो रहा है। 
संविधान की हत्या संविधान के रक्षक कर रहे हैं, 
लोकतंत्र ICU में लेटा रो रहा है। 
वो लोकतंत्र का गला घोंट रहा है।।

अभी भी वक्त है बचा लो संविधान को, 
क्योंकि वो और तेज़ी से उसकी सांसे रोक रहा है। 
वो लोकतंत्र का गला घोंट रहा है।।

स्वरचित
स्वाति नेगी

तुझसे....

मन करता है तुझसे सवाल पूछूं
पर लब खुलते हैं, ज़ुबान रुक जाती है।।

तू करेगा तो अच्छा ही करेगा, 
बस यही तसल्ली दिल को कराते हैं, 
रात के बाद फिर सुबह होगी, 
बस यही ढांढस दिल को बंधाते हैं, 
फिर जब उम्मीद टूटती है तो, 
मन करता है तुझसे बात करूं 
पर लब खुलते हैं जुबान रुक जाती है।।

हर रुकावट को तेरा फैसला समझ कर, 
खुद को बहलाते हैं, 
खुद को और मजबूत कर कर, 
तेरी पहेलियां सुलझाते हैं, 
फिर जब नहीं सुलझती तो, 
मन करता है तुझसे लडूं, 
पर लब खुलते हैं ज़ुबान रुक जाती है।।

थक जाते हैं लड़ते-लड़ते, 
हौसला जवाब देने लगता है,
मेरे हौसलों का पुलिंदा भी, 
फिर ढहने लगता है, 
फिर जब आखिरी लौ भी बुझ जाती है तो,
 मन करता है... अब जुबान के साथ-साथ कलम भी रुक जाती है।।

{मुझे नहीं पता, ना जानना है, ना मेरी मर्जी चल रही है ना तेरी मर्जी, तो यह चल क्या रहा है!? और कब तक? रोको इसे या मुझे। फैसला तुम्हारा या फिर हमारा चुनना तुम्हें है}

स्वरचित 
स्वाति नेगी

Saturday, 3 October 2020

तितली

डाल_डाल हर पात_पात, फूल_फूल हर बाग_बाग
मैं जाती हूँ _ इठलाती हूँ, मैं सबके मन को भाती हूँ |

कभी इधर_इधर, कभी उधर_उधर, 
न जाने जाऊँ किधर_किधर,
यूं डोलूं मैं, तो बोलूं मैं, 
हर रंग गये है बिखर_बिखर,
वसंत आया झूम_झूम कर, बस यही संदेश सुनाती हूँ |
मैं सबके मन को भाती हूँ |

हर फूल खिला, खिला गुलशन, 
लग रही है बगिया एक दुल्हन, 
अब चलने लगी है पुरवैया,
और चंचल हो गयी चितवन, 
मैं देख ये पावन सुन्दरता, मन्द_मन्द मुस्काती हूँ |
मैं सबके मन को भाती हूँ |

हर गीत सुनूं मैं मौसम के, 
हर साज़ छेडूं मैं सावन के, 
सुन्दर_सुन्दर चमकती हरियाली, 
कुछ मीठे छींटे बारिश के, 
सौंधी_सौंधी मिट्टी की महक, मैं खुशियों से भर जाती हूँ |
मैं सबके मन को भाती हूँ |

एक दिन की ज़िन्दगानी मेरी, 
एक दिन का ही फ़साना है, 
एक दिन में ही पूरा जीवन मेरा, 
जिसे मुझे खुशियों से बिताना है,
बस अब यही तराना हर क्षण मैं तो गाती जाती हूँ |
मैं सबके मन को भाती हूँ |

मैं हर पल खुश हो जाती हूँ |
मैं सबके मन को भाती हूँ |


                         स्वरचित
                       स्वाती नेगी