मन करता है तुझसे सवाल पूछूं
पर लब खुलते हैं, ज़ुबान रुक जाती है।।
तू करेगा तो अच्छा ही करेगा,
बस यही तसल्ली दिल को कराते हैं,
रात के बाद फिर सुबह होगी,
बस यही ढांढस दिल को बंधाते हैं,
फिर जब उम्मीद टूटती है तो,
मन करता है तुझसे बात करूं
पर लब खुलते हैं जुबान रुक जाती है।।
हर रुकावट को तेरा फैसला समझ कर,
खुद को बहलाते हैं,
खुद को और मजबूत कर कर,
तेरी पहेलियां सुलझाते हैं,
फिर जब नहीं सुलझती तो,
मन करता है तुझसे लडूं,
पर लब खुलते हैं ज़ुबान रुक जाती है।।
थक जाते हैं लड़ते-लड़ते,
हौसला जवाब देने लगता है,
मेरे हौसलों का पुलिंदा भी,
फिर ढहने लगता है,
फिर जब आखिरी लौ भी बुझ जाती है तो,
मन करता है... अब जुबान के साथ-साथ कलम भी रुक जाती है।।
{मुझे नहीं पता, ना जानना है, ना मेरी मर्जी चल रही है ना तेरी मर्जी, तो यह चल क्या रहा है!? और कब तक? रोको इसे या मुझे। फैसला तुम्हारा या फिर हमारा चुनना तुम्हें है}
स्वरचित
स्वाति नेगी